I would like to thank Nandini Patodia for her sensitive reconstruction of Brothers of kin in Hindi. Our hope is the message in this poem reaches far and wide across India. The original poem in English is available on: Brothers of kin.
ओ मेरे देश के पुरुष, भाई हमारे, स्वजन हमारे
एक बार फिर तुमने तहस नहस कर दिया है
अपने अन्तर का सुकून.
स्त्री की आत्मा का हनन कर तुमने
कलंकित खुद अपनी रूह को किया है
शक्ति के प्रदर्शन में, लिप्सा और लोलुपता
भरी जहालत में, क्या थी ख़ुशी तुम्हारी ?
तुममें भी तो है एक स्त्री
शर्म से सिकुड़ गयी होगी तुम्हारे भीतर की वह माँ.
रो उठी होगी वह, कि वह थी जन्मदाता, एक पुत्र
एक भाई, एक पिता, एक दोस्त की.
ओ भारत के पुरुष, हमारे आत्मीय बन्धु
आहत किया है तुमने, तुम्हारे ही अपनों को.
क्या तुम अब पहले से बेहतर नींद सो पा रहे हो?
ह्रदय में हाहाकार मचाता गीत सुन पा रहे हो?
व्यवस्था का इंसाफ, शायद हार भी जाए ,
लेकिन तुमने तो, न्याय के शिकंजे तुम तक पहुंचें,
उसके पहले ही कर डाला है अपना विध्वंस
अपनी करतूत से बच नहीं पाओगे तुम
हो तुम अब बस अपने घुटनों के बल पर,
उठ सकते हो तुम, या गिरना चाहोगे…
निर्णय तुम्हारा है.
स्वजन बन्धु, याद करो तुम्हारी गर्भ के भीतर की धड़कनें,
दिन पर दिन जब बीतते जायेंगे
वही, हाँ वही धड़कन गूंजेगी तुम्हारे कानों में; जब
लहू का कतरा कतरा तुम्हारा बहता चला जाएगा
और साँसें छोड़ देंगी साथ, फिर कभी न लौटने को.
उठो, उठो…और दिखाओ वह पौरुष जो हमारे सम्मान का हकदार हो.
इसी आशा और विश्वास के साथ-
—स्त्रियाँ, हम सभी

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